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Wednesday, July 28, 2010

गूंजते हैं चहुँ ओर प्रिय स्वर


दिन यूँ बेचैन रहता है कि वो बात कब करेंगे
रात यूँ सजग रहती है कि वो बात अब करेंगे
न होश दिन को अब किसी भी श्रृंगार का
न होश रात को है जरा भी खुले द्वार का


देह है बिन प्रियदरस, शिथिल, उठती ही नहीं
आँख बिन दरस, अपलक है के, झुकती ही नहीं
बरखा में तो भीग ना पायी काया इस बिरहन की
रुत के सूखेपन में भी आँख भरी रही जोगन की


वाणी करुण गीत गाये, पीर उन्हें ले आये
कान पथ पर लगाये, प्रीत उन्हें ले आये
मूक वाणी हो चली है, प्रिय बोल बिन
गूंजते हैं चहुँ ओर प्रिय स्वर, बोल बिन
11:14p.m., 19/7/10

1 comment:

  1. aapka blog dekha
    wokavita nahi mili jo aapne goshti men padhi thi
    badi hi uttam kavita thi mumkin ho to use mail karen
    dhanyavad
    aadil rasheed

    ReplyDelete

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आपने अपना बहुमूल्य समय दिया एवं रचनात्मक टिप्पणी दी, इसके लिए हृदय से आभार.