दिन यूँ बेचैन रहता है कि वो बात कब करेंगे
रात यूँ सजग रहती है कि वो बात अब करेंगे
न होश दिन को अब किसी भी श्रृंगार का
न होश रात को है जरा भी खुले द्वार का
देह है बिन प्रियदरस, शिथिल, उठती ही नहीं
आँख बिन दरस, अपलक है के, झुकती ही नहीं
बरखा में तो भीग ना पायी काया इस बिरहन की
रुत के सूखेपन में भी आँख भरी रही जोगन की
वाणी करुण गीत गाये, पीर उन्हें ले आये
कान पथ पर लगाये, प्रीत उन्हें ले आये
मूक वाणी हो चली है, प्रिय बोल बिन
गूंजते हैं चहुँ ओर प्रिय स्वर, बोल बिन
11:14p.m., 19/7/10
aapka blog dekha
ReplyDeletewokavita nahi mili jo aapne goshti men padhi thi
badi hi uttam kavita thi mumkin ho to use mail karen
dhanyavad
aadil rasheed