मैंने शब्दों का जाल बुना, पर
बुलंद वो आवाज न लगा पाया
भारी, अलंकारिक शब्द चुने
पर उनमें ओज न भर पाया
शब्दों में संघर्ष रहा, पर
जीवन संघर्ष न भर पाया
बही एक दिशा में ये सरिता
पर मानव दिशा न दे पाया
भोगा इसमें जीवन मैंने, पर
आत्मचिंतन न ला पाया
पीड़ा तो भर दी इसमें कूट-कूट
पर उस जड़ में जल न चढ़ा पाया
रहा इसी समाज में, पर
इसे ही यथार्थ न बना पाया
लिखे सुंदर काव्यग्रंथ मैंने
पर क्या स्वयं को कवि बना पाया.
12:23 p.m., 28/6/10
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