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हृदय के उदगारों को शब्द रूप प्रदान करना शायद हृदय की ही आवश्यकता है.

आप मेरी शक्ति स्रोत, प्रेरणा हैं .... You are my strength, inspiration :)

Monday, May 31, 2010

एक स्वप्न .....

अपने आंसुओं में
ह्रदय रक्त मिला
ओठों की मुस्कान ले
रंगोली सजाई


जब पड़ी 
योगी चरण धूलि
आंसू मोती बने
रक्त में लालिमा आई


मुस्काई अधरों की मुस्कान
रंगोली में भर गए रंग
माथे पर बिंदिया दमकी
पगली ने मांग सजाई


चुनकर पुष्प सुगन्धित
जतन से कोमल कलियाँ
बुहार कर पलकों से
राह में सजाये


सहलाया जब 
योगी क़दमों ने
पुष्पों की सुगंध महकी
लिया माथे से लगाये


बना पुष्प का कंठहार,
कंगना व बाली पहनी
कलियों से भर मांग
पगली खड़ी शर्माए.

10:08p.m., 15/5/10

Sunday, May 30, 2010

बस जीव जीवित है

---------------------------

न आँखों में आंसू हैं
ना होठों पर मुस्कान
न शब्द ही गूंगे हैं
पर है ना मधुर तान

बस जीव जीवित है

न किसी की चाह है
ना करुण है रुदन
न तीव्र विरह वेदना है
पर है ना ही मधुर स्पंदन

बस जीव जीवित है

न तूफान की कोई आहट है
ना सजा खुशियों का है मेला
न कारवां का साथ है
पर है ना ही नितांत अकेला

बस जीव जीवित है


न इंतजार किसी का है
ना वादा ही किया अब
न अंत का ही भय है
और ना लगाव रहा कोई अब

बस जीव जीवित है



11:39p.m., 14/5/10

तुम पाषाण के


तुम्हारी बातें सच बहुत मीठी थी
कुछ पल तुम्हारा सच ओझल किया
झूठ की जब परतें खुलती गयी
तुम्हारे शब्द विषयुक्त नजर आए

जग से नेत्र्जल को हंसकर छिपाया
पर हर दिल ने फिर भी आभास किया
तुमने ही जो दिए थे आंसू
तुम्हे ही बस नजर नहीं आए

सच कहते हो तुम अब ये की
नेह सिर्फ मैंने ही तुमसे किया
तुम तो बंटे हुए थे टुकड़ों में
इक टुकड़ा थे बहलाने चले आए

तुम जग में कहते फिरते हो
मुझ पर तरस तुमने किया
वो आकर मुझको कहते हैं
तरस तुमपर ही उनको आए

कहते हैं नहीं मेरा तुम्हारा कोई मेल
भला तुम्हारा जो स्वयं को विलग किया
हीरा तो जड़ झिलमिलाता है स्वर्ण में
पर तुम पाषाण के गुण हो लेकर आए

6:06p.m., 13/5/10

धीरज

*******

[१]

धीरज....

अपने से

पीछे वाले

वाहन चालक

में अनुरागपूर्वक


अग्रसर चालक

में

अनादर भाव से

जिसे हम

देखते हैं,

है......

धीरज!!!!!!





[२]


धीरज


है


आवश्यक


हरपल,


हर स्थिति में,


हर वस्तु संग


परन्तु


मुख्यतः


स्वयं के लिए ...


अपने दोषों


को


समझने


का साहस





अविलम्ब


सुधार के लिए


प्रयत्नरत

तेजाब जड़ों में

तुम करते हो प्रेम की बातें
नफरत मिटाने की सौ बातें
बड़े-बड़े लेख हो लिखते
आलंकारिक काव्य गढ़ते

दो प्रेमी कहीं मारे गए सुन
करते हो तुम रुदन करुण
फिर दिखाती लेखनी कौशल
है धधकती लावा हरपल

धर्म के नाम पर हुए जो दंगे
कहा क्यूँ हैं दिल खून से रंगे
फिर क्यों हो रूठे मुझसे तुम
कहाँ हो गए भाव तुम्हारे गुम 
मैंने भी तो है जीना चाहा
अपना कल संवारना चाहा
करते हो हरपल तुम भी यही
तो क्यूँ तुम्हारी चाल ही सही

क्या मुझसे यूँ रूठे रहोगे
क्या मुझको बेगाना कहोगे
जड़ ने पहुँचाया आसमान में
क्या भर दोगे तेजाब जड़ों में

11:04, 28/4/10

वो तुम्हारे पल तुम्ही को सौंपती हूँ


वो तुम्हारे पल तुम्ही को सौंपती हूँ
गुजरे हुए वे कल यादों को सौंपती हूँ

वो उड़ते पंछियों का गहराते आकाश में खोना
धुंधलके में पुष्पों का पंखुड़ियों को समेट सोना
मंद पवन के झोंकों का मीठा सा स्पर्श होना
वो नन्ही बूंदों के आने पर हमारा चौंका होना

पल्लवित वो उड़ान दिशायों में ठहर गए हैं
मीठे वे सारे सिहरन मुझमें ही रह गए हैं

वो शिला पर बैठ तुम्हारा वादियों को निहारना
क़दमों पर बैठ संग सुनना कोयल का पुकारना
बेखयाली में तुम्हारे घुटनों पर सर का टिकाना
और तुम्हारी उँगलियों का मेरी लटों को सुलझाना

दृश्य वो सारे आँखों में ठहर गए हैं
स्पर्श वो तुम्हारे मुझमें रचबस गए हैं

लहरों में, कलोलना, संग तुम्हारे
और फिर, रहे नैन जब मुझे निहारे
वो छाँव में टिके कुञ्ज-कलिन के सहारे
नेह से भरे बीते थे पल मेरे, संग तुम्हारे

सारे वो लहर देह में ठहर गए हैं
स्पंदन सारे अन्तस्तल में रह गए हैं

तुम्हारे जाने की सुन आँखों से, बहती गंगा, मेरे
आने का संदेशा पा भी छलक जाते थे नैन मेरे
सुनाते थे नेत्र, तुम्हें, दिल के तरंगित गीत मेरे
लज्जा के घूँघट में रह जाते प्रणय शब्द मेरे

पलकों के मोती अब वहीँ ठहर गए हैं
अधरों में रुके शब्द भी वहीँ जम गए हैं

वो ठहर कर तुम्हारा चले जाना
वो जाकर भी तुम्हारा ठहर जाना
हमारे उन पलों को, तुम्हारा मौन कर जाना
मौन का लौट-लौटकर, ह्रदय से टकरा जाना


गुजरे हुए हमारे कल यादों को सौंपती हूँ
वो मेरे-तुम्हारे पल तुम्ही को सौंपती हूँ



12:29pm, 27/4/10

तुम चाहो हो जब ये दूरी


क्यों नहीं हुआ तुम्हारा-मेरा ये मेल
क्यों रह गया ये बनकर बस इक खेल
हाँ थी मैं सिमटी बदली, भरे नीर
और तुम थे गगन नील, धीर, गंभीर



तुम चाहो हो जब ये दूरी
तो होगी चाह तुम्हारी पूरी
हाँ! कर लूंगी होंठ ये खामोश
नाचूंगी, झुमूंगी लिए पूरा जोश




बह जायेंगे गर ये आंसू
कह दूँगी उड़े तिनके हर सू
मिट जायेगा जो ये कजरा
कह दूँगी न सजाया ये कमरा



केश अगर ये खुल जायेंगे
बदली से जो लहरायेंगे
खुल जायेगा जो गजरे का घेरा
कहूँगी, है नहीं उँगलियों को फेरा



हाथ मेरे जो काँप उठेंगे
चूनर उनको ढांप रहेंगे
और कभी जो ये कदम लडखडाये
दूंगी सारा दोष पत्थर पर लगाये



 कि तुम्हे न देख पायेगी ये चन्द्रिका
सो कर लेगी ओट किसी बदली का
बस तुम सदैव मुस्काते रहना
मुस्कान तुम्हारी है मेरा गहना


11:18pm, 25/4/10

उड़ने लगी ये धुंध की चादर

है कितना घनघोर अँधेरा

कहाँ है वो मेरा सवेरा

वो किरणे जो करे ह्रदय को आलोकित

मेरा होठों के बेताल सुरों को झंकृत



वो सुनो पंछी चह्चहाए

कमलदल झूम के मुस्काए

घुलने लगा है देखो अँधेरा

हरी चूनर ओढने लगी धरा



ओस झिलमिलाये, पुष्प खिलखिलाए

तरु से लिपटी बेल शर्माए, बलखाए

रथ पर सवार निकला चमकीला तारा

सुनहरी रश्मियों को धरा पर वारा



उड़ने लगी ये धुंध की चादर

प्रिय मिहिर मिलन को आतुर

मेरे आंगन जो पड़ी थी छाया

उस पर चला दी अवि ने माया



कुसुम महके, पंछी चहके

पवन चली हलके-लहके

खिलाने मेरा मन उपवन

वारी है मुझपे अपनी किरन

10:06pm, 23/4/10

शोर मचा रहे हैं सन्नाटे

है मन-आंगन सूना-सूना सा

फल बिन भी हो ज्यूँ तरु झुका सा

चली थी वो मीठी पुरवैया मेरे अंगना

सिखा गई थी मुझको भी उड़ना


पड़ते नहीं थे धरा पर पग मेरे

उड़ाती लटों को चेहरे पर मेरे

संग ले चली मुझको खेत खलिहान में

रोंपने सपने इस सुंदर जहान में


मेघों को थी लायी जल-वृष्टि को

फूटे अंकुर नवजीवन जीने को

फिर बदला वो रुख पवन का

लाया सच विनाशक वेग का


तहस नहस हो गई सगरी बगिया

कैसा ये रूप धरा अब ओ पुरवैया

उजड़ी धरती, डह गया मन आंगन

कह गया, न था, कभी कुछ भी पावन


कितना शोर मचा रहे हैं सन्नाटे

अब कैसे, इनमें से, कोई शब्द छांटे


9:21pm, 23/4/10

देखो मेरे दर्द ने तुम्हे कवि बना दिया

देखो मेरे दर्द ने तुम्हे कवि बना दिया


मेरे दिए आंसुओं ने रचना को निखार दिया 




कह गए तुम, यूँ जाते-जाते, समझाते


जाने क्यों, तुम्हे हैं, तीर चुभाने ही भाते


कहते हो, मुझसे ही करते हैं नेह


पर क्यूँ नजर आयें, सबको संदेह 


हर मिलन में हो अवसाद भर जाते


और मेरे मौन को हो स्वार्थी कह जाते


मुझे निर्भीक प्रेम, त्याग की महिमा समझाते हो


स्वयं छुपकर मेरी गलियों से निकल जाते हो


बातें तो बड़ी-बड़ी बनाना तुम्हे भाए


प्रेम के मर्म को पर क्या जान पाए






होता जो स्नेह तो क्या मेरे अश्रु तुम्हे भाते


मौन रहे मेरे अश्रु क्या तुम्हे ना रुलाते


नहीं चाहिए लेखनी का उच्चकोटि होना


गर है आंसुओं का इनकी कीमत होना


कहते तुम, नहीं चाहता तुझे छुए गम की परछाई भी


बस मुस्काते होंठ, नैनो में चमक, ह्रदय में उमंग ही


तुम ना कहते देखो दर्द ने रचना को निखार दिया


कहते मेरे प्रेम ने तुम्हारे रूप को और संवार दिया


.


गर कहीं तुमको मुझसे प्रेम होता


गर मेरा दर्द तुम्हारे दिल में रोता



5:40pm, 21/4/10.

ये गंगा तुममें नहीं बहती.

सबने



कहा मुझे-



“तुम ही



प्रीत हो ”





राधा सी भक्ति



मीरा सा प्रेम .





वैसे ही



चाहा मैंने



तुम्हे



राधा सी बौराई



मीरा सी दीवानी.





पर



तुम



न जान सके.



​शायद- प्रेम ​ की 
 

ये गंगा



तुममें



नहीं



बहती.

5:13pm, 20/4/10

अच्छा किया तुम नहीं आये

अच्छा किया


तुम नहीं आये


तुम्हारे वो झूठे-सच


सच्चे हो जाते


तुम्हे हरपल जो कहा


कभी तो सच बोलो


वो मेरी उलाहना


लज्जित हो जाती


आँखों में भरा अविश्वास


अश्रु बन जाता






अच्छा किया


तुम नहीं आये






पर गर तुम आ जाते


मेरे अश्रु मुक्ति पा जाते


नैनो में विश्वास भर लाते


लज्जा गहना बन जाती


बोल मोती बन जाते


उलाहना मूक हो जाती


तुम्हारे झूठ मधुर हो जाते


प्रीत सच्ची हो जाती


.


.


अच्छा किया


तुम नहीं आये






3:33pm, 16/4/10

यकीं कर सकूं

मेरी जिंदगी में दर्द हैं फिर भी जीती हूँ
तू जो दूर चला जाये तो चैन से मर सकूं
तू सर से पाँव तक झूठ है ये जानती हूँ
तू कभी अब सच बनकर भी आये तो कैसे यकीं कर सकूं

मैंने तुझे चाहा मानती हूँ मैं ही गलत हूँ
तू ये एक बार कह दे कि सब झूठ था तो यकीं कर सकूं
बस तेरे एक ही सच का इन्तजार करती हूँ
कि तू कभी, कहीं, किसी के लिए सच है ये यकीं कर सकूं

तेरे दिए हर दर्द को सीने से लगाती रही हूँ
कोई एक दर्द तेरा दिया ना था ये यकीं कर सकूं
जानता है तू जिंदगी से बढ़कर तुझे चाहती रही हूँ
वो तू ना था जिसके लिए मौत को गले लगाने चली यकीं कर सकूँ

तू नए-नए फूलों का रसिक है ये अब जान गई हूँ
तुझसे न की थी कभी प्रीत बस अब ये यकीं कर तो सकूँ

है नहीं ये खेल

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वो जो हमने खेल इक खेला
खेल हमें वो बना गया
यूँ ही हँसते खेलते देखो
पलकों में नमी दे गया


जोगी तुम तो बन बैठे
मैं बनकर भी नहीं बनी
कहकर भी जो न कह पाई
तुमने सुनकर भी नहीं सुनी


मेरी मुखरित ख़ामोशी
तुम्हारी ख़ामोशी मुखरित कर गई
तुम शब्दों में वो कहते गए
जो मौन ह्रदय मैं कहती गई


चाह की ऊष्मा तुम लाये
शीतल चांदनी मैं बन बैठी
डरकर मैं स्वयं की तपिश से
बदली की ओट जा बैठी


मनमयूर जो नाचा फिर भी
रंगों को श्यामल किया मैंने
तुमको दूर करते करते
मन समर्पण किया मैंने



घाटी में पुष्प खिलाये जो
चोटी में रोपण तुमने किया
शीतलता जो भरना चाहा
उसने ही उष्मित किया


उठी जो लहरें ऊँची-ऊँची
मैं घिरने से बच ना पाई
भीग क़र लता जो निखरी
तुमसे नैन मिला ना पाई


गहराई की थाह क्या पाते
डूबकर उभर ना पाए
बिन डूबे भी यूँ हम डूबे
न तुमने जाना न हम जान पाए


चांदनी ने सहलाया तुमको
पर स्वयं चांदनी जल रह गई
तुम्हे जलन ना हो ओ जोगी
मौन पिघलकर वो रह गई


तुमको कहाँ है दूर किया
मैं स्वयं बंदी बन बैठी
जलकर इस खेल के सत्य में
सिसकी को मौन कर बैठी



सोचा चले गए तुम बेरंग
बिना कोई खरोंच पाए
इस सुख को लिए ह्रदय में
अश्रु मेरे थे मुस्काए


जाने दिया, न कहा रुकने पलभर
कि टूट न जाये रुका बाँध
कुचला तनमन लिए भला मैं
क्या रख सकती थी तुमको बाँध


पर जो बैठी हाय सोचने
गई मेरी रूह भी कांप
तुम भी चले गए यूँ बढ़कर
दर्द अपना वो मुझसे ढांप


की जो दूरी, थी मज़बूरी
स्वयं को नहीं पाई मैं बाँध
जोगी तुम बहता पानी
मेरे टूटे हुए हैं बांध


तुम्हारा जग तो बेहद मोहक
बना कल्पना, रखते तुम मुझको
मेरा संसार बना अश्रु से
शिव, सत्य बन तड़पाता मुझको


इस दुनिया मैं रहती हूँ पर
इस दुनिया से अनजान हूँ मैं
चन्द्रिका ये रहती कल्पना में
कहती दुनिया नादान हूँ मैं


ना सोचा मैंने रुकेगा ऐसे
मेरा-तेरा मासूम सा खेल
खेला नहीं क्यूँ, ज्यों तुमने चाहा
ना कह ही पाई है नहीं ये खेल

3:09pm, 13/4/10

चन्द्रिका जटाओं में, पर, सज बैठी

वो इक रात का प्रेम
जो तुमसे कर बैठी
चन्द्रिका, बदली,
अँधियारा सब बन बैठी

धुंध जो सवेरा लाया
ऊष्मा से गहरा कर बैठी
द्वंद्व में जो फंसा मनपंछी
अनजाने पिंजरे जा बैठी

दोष नहीं है मेरा भी
जो तुमसे नेह कर बैठी
शिव का ज्ञान पाने को
उन चरणों में जो जा बैठी

चांदनी से अलंकृत हो
लहरों में जो डूब बैठी
भीगा भाव लिए जो निकली
मन आलिंगन में जा बैठी

तुमसे छिपाए सिहरन अपनी
चन्द्रिका बदली में जा बैठी
किया अलविदा अब तुमने योगी
पलकों में आंसू भी छुपा बैठी

तुमको तो ज्ञात ही नहीं
इक जीवन तुम संग जी बैठी
चली हूँ दूर तुमसे ओ जोगी
गंगा सम मैं बह जो बैठी

शिव हो दूर रमते हो, अब तुम
चन्द्रिका जटाओं में, पर, सज बैठी
2:55am, 13/4/10

ये कैसी उलझन



ये कैसी उलझन,
ये कैसा द्वंद्व
मनो मस्तिष्क में,
प्रेम व ज्ञान
क्या श्रेष्ठ. 

प्रेम अनुभूति
क्या है सत्यता
ना भान
है कोमलता,
है निष्ठुर,
ना स्थायित्व.

ज्ञान प्राप्ति
सत्य का अवलोकन,
पूर्ण ध्यान,
चिर सत्य,
बदलता
किन्तु
स्थाई
सूर्य समान,
लगे ग्रहण
परन्तु
अल्पकाल,
चिर रश्मियाँ.

प्रेम
चन्द्र
घटती -बढती
चांदनी
पूर्णिमा,
अमावस.

पर
मनोरम चांदनी
क्यों लगी भली
तेजयुक्त ज्ञान धूप से
जबकि
है ज्ञान
प्रेम
चांदनी
समान
स्वप्न
है.

ये
कैसी उलझन है.

1:01pm, 12/4/10

उसी को सोच, बस, मैं लिखती हूँ

उसी को सोच, बस, मैं लिखती हूँ
ना सोचो उसके लिए लिखती हूँ



वो है खोया अपनी ही दुनिया में
स्वप्निल परियों की बगिया में


बहते आंसू, टूटे दिल, कहाँ के वादे उसके लिए
दो पल की मादक खुशबू काफी है उसके लिए


दिखती है, कम्पन मेरे होठों की, हाँ उसको
फिर भी दिखती है ये कम्पन, कहाँ उसको


अब मैं उससे दूर-दूर ही बसती हूँ
नेह भूल, दर्द को ही तरसती हूँ


पूजा के फूल, रखती हूँ, उसके हाथों में
रौंद देता है जाने-अनजाने बातों-बातों में


उसकी झूठी दुनिया स्वर्ग है उसके लिए
कैसे ठहरे सच की नगरी में मेरे लिए


लुभाता मेरा रूप-श्रृंगार अब भी उसको
पर मंदिर और राहों में अंतर ना उसको


उसकी सोचों में अब मैं कहाँ रहती हूँ
उसी को सोच, बस, मैं अब रहती हूँ

4:13pm, 5/4/10