ब्लॉग में आपका स्वागत है

हृदय के उदगारों को शब्द रूप प्रदान करना शायद हृदय की ही आवश्यकता है.

आप मेरी शक्ति स्रोत, प्रेरणा हैं .... You are my strength, inspiration :)

Sunday, May 30, 2010

तुम पाषाण के


तुम्हारी बातें सच बहुत मीठी थी
कुछ पल तुम्हारा सच ओझल किया
झूठ की जब परतें खुलती गयी
तुम्हारे शब्द विषयुक्त नजर आए

जग से नेत्र्जल को हंसकर छिपाया
पर हर दिल ने फिर भी आभास किया
तुमने ही जो दिए थे आंसू
तुम्हे ही बस नजर नहीं आए

सच कहते हो तुम अब ये की
नेह सिर्फ मैंने ही तुमसे किया
तुम तो बंटे हुए थे टुकड़ों में
इक टुकड़ा थे बहलाने चले आए

तुम जग में कहते फिरते हो
मुझ पर तरस तुमने किया
वो आकर मुझको कहते हैं
तरस तुमपर ही उनको आए

कहते हैं नहीं मेरा तुम्हारा कोई मेल
भला तुम्हारा जो स्वयं को विलग किया
हीरा तो जड़ झिलमिलाता है स्वर्ण में
पर तुम पाषाण के गुण हो लेकर आए

6:06p.m., 13/5/10

1 comment:

  1. तुम जग में कहते फिरते हो

    मुझ पर तरस तुमने किया

    वो आकर मुझको कहते हैं

    तरस तुमपर ही उनको आए

    Loved it.. keep writing.

    ReplyDelete

Thanks for giving your valuable time and constructive comments. I will be happy if you disclose who you are, Anonymous doesn't hold water.

आपने अपना बहुमूल्य समय दिया एवं रचनात्मक टिप्पणी दी, इसके लिए हृदय से आभार.