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Sunday, May 30, 2010

शोर मचा रहे हैं सन्नाटे

है मन-आंगन सूना-सूना सा

फल बिन भी हो ज्यूँ तरु झुका सा

चली थी वो मीठी पुरवैया मेरे अंगना

सिखा गई थी मुझको भी उड़ना


पड़ते नहीं थे धरा पर पग मेरे

उड़ाती लटों को चेहरे पर मेरे

संग ले चली मुझको खेत खलिहान में

रोंपने सपने इस सुंदर जहान में


मेघों को थी लायी जल-वृष्टि को

फूटे अंकुर नवजीवन जीने को

फिर बदला वो रुख पवन का

लाया सच विनाशक वेग का


तहस नहस हो गई सगरी बगिया

कैसा ये रूप धरा अब ओ पुरवैया

उजड़ी धरती, डह गया मन आंगन

कह गया, न था, कभी कुछ भी पावन


कितना शोर मचा रहे हैं सन्नाटे

अब कैसे, इनमें से, कोई शब्द छांटे


9:21pm, 23/4/10

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