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हृदय के उदगारों को शब्द रूप प्रदान करना शायद हृदय की ही आवश्यकता है.

आप मेरी शक्ति स्रोत, प्रेरणा हैं .... You are my strength, inspiration :)

Wednesday, July 28, 2010

तुम प्रीतम ना बन सके


मैंने तो नित श्रद्धा जल किया अर्पण,
तुम शंकर ना बन सके

मीरा सम पिया गरल हँसकर,
तुम कान्हा ना बन सके

मैं तो मुग्ध तुम्हे तकती रही,
तुम चन्द्र दर्पण ना बन सके

मैंने कस्तूरी बन तुमको महकाया,
तुम कस्तूरी-मृग ना बन सके

मैं इन्द्रधनुष सी फैली, झलकी,
तुम नीर-नील-गगन ना बन सके

मैं तो बन बैठी मधु प्रिय,
तुम मधु-पात्र ना बन सके

मैंने तो की थी प्रीत ही तुमसे,
तुम प्रीतम ना बन सके.


3:24PM, 16/4/10

मैं ‘वो’ बन जाती हूँ


मिले  एक  बंधू  राह  में
मैंने  कहा  ‘राम -राम
क्रोधित  हो  गए, बोले -
कट्टर  हिंदूवादी  हो  – संकीर्ण
मैं  हतप्रद, ऐसा  क्या  कह  गई 
सोचा  विकल  है  आज  मन  उनका
इसीलिए  बंधू  गुस्साए  हैं

कुछ  दिवस  बाद  हुआ  पुनः  मिलना 
थी  लौट  रही  संग  सलमा  के 
मदरसे   से  जलसे  का  आनंद  ले 
उसी  रौ  में  कह  गई  ‘आदाब  अर्ज  है
उफ़  चिंगारी  डाल  दी  घी  में  अनजाने
भड़ककर  बोले  – तुम,
तुम  बनो  मुसलमान, शायद 
भाते  हो  सलमा  के  भाई, सो 
घूम  मदरसे  सलमा  संग  आई
दूजे  धर्म  से  दोस्ती  करते  नहीं
यहाँ  तो  भाई  भी  बहिन  के  होते  नहीं 
मुझको  काटो  तो  खून  नहीं 
सलमा  के  पलकों  में  भी  नमी 
कहना  था  बेकार  कुछ  उस  वक़्त 
  जाने  क्या-क्या  करना  पड़ता  ‘जब्त
खैर  सलमा  को  गले  लगाया 
भूल  जाओ  खुद  को  समझाया 

टकरा  गए  एक  ‘पार्टीमें  जनाब 
माहौल    देख  कहा  ‘गुड  इवनिंग   जनाब
खौलते  ढूध का  चूल्हा  तेज  कर  बैठी 
उबलकर  बोले  – संस्कृति  हो  तज बैठी 
अंग्रेज  चले  गए, तुम्हे  छोड़  गए 
और  अपना  ‘सफारी सूटझलकाते  चले  गए 
और  मैं   जड़  खड़ी  रह  गई


कहूँ  जो  ‘राम -रामतो 
बन  जाती  हूँ  बी.जे.पी. की  नायिका
लगाया  जो  सलमा  को  गले 
तो  बना  दिया  मुझको  ‘काफ़िर
और  जो  चली  वक़्त  के  साथ 
तो  बन  गई  ‘फिरंगी
जबकि  मैं  तो  इनमें  से  कोई  नहीं 
हूँ  एक  सीधी  सी  मानवी 
जिसने  भेद    कभी  सीखा 
आदिसंग  ‘राधे -राधे
तो  ‘सेराजजीको  ‘आदाब
डेविडको  ‘गुड इवनिंग
कहती  हूँ  जब  मिलते  हैं 
राधा  की  भक्ति  में  डूब  जाती  हूँ 
अल्लाह  खेर  करेभी  कहती  हूँ
मदर  मेरी  ब्लेस  अस
ये  भी  जब -तब  कहती हूँ 
फिर  क्यों  मैं  सिर्फ  ‘मैंनहीं  रहती 
क्यों  मैं  ‘वोबन  जाती  हूँ ?
4:10p.m., 22/7/10

गूंजते हैं चहुँ ओर प्रिय स्वर


दिन यूँ बेचैन रहता है कि वो बात कब करेंगे
रात यूँ सजग रहती है कि वो बात अब करेंगे
न होश दिन को अब किसी भी श्रृंगार का
न होश रात को है जरा भी खुले द्वार का


देह है बिन प्रियदरस, शिथिल, उठती ही नहीं
आँख बिन दरस, अपलक है के, झुकती ही नहीं
बरखा में तो भीग ना पायी काया इस बिरहन की
रुत के सूखेपन में भी आँख भरी रही जोगन की


वाणी करुण गीत गाये, पीर उन्हें ले आये
कान पथ पर लगाये, प्रीत उन्हें ले आये
मूक वाणी हो चली है, प्रिय बोल बिन
गूंजते हैं चहुँ ओर प्रिय स्वर, बोल बिन
11:14p.m., 19/7/10

सखी, वो देर........देर से आते हैं


बोली  मेरी  खोजती  नजरें  देखकर
सखी, वो  देर........देर  से  आते  हैं
मुरझाते  बेजान  सी  हृदयबेल  पर
कुछ  बूंदें  छिटक  चले  जाते  हैं

आने  की  ख़ुशी  देते  हैं  मगर
जीने  से  पहले  विदा  ले  जाते  हैं
छाती  है  बदली  जीवन  नभ  पर
चातकी पर  वर्षा    कर  जाते  हैं

  मर  पाते  हैं  हम  पर 
क्यूंकि  वो चले  तो  आते  हैं 
  जीना  हो  पाता  है  मगर 
पानी  का  बुदबुदा  बन  आते  हैं 


उन्हें  आते  देख   भर  लहर
आँसू मेरे  मुस्का  जाते  हैं
आते  हैं  कहने  जाने  की  मगर
आँसू    हँस    रो  पाते  हैं
4:21p.m., 17/7/10

धरा-गगन के जो नज़ारे हैं मुझको प्यारे हैं


धरा-गगन  के  जो  नज़ारे  हैं
तुम  जैसे   मुझको  प्यारे  हैं

चीते   ने  ली  तुमसे  चपलता
हिरन  को  मिली चंचलता
सूरज  ने  तेज  तुमसे  ही  तो  लिया  है
चाँद  की   शीतलता  तुम्हारा  दिया  है

पर्वतों  ने  लिया  सौम्य  बड़ापन 
नदियों  ने  चंचल  सा  बालपन
तारों  ने  राह  सुझाने  का  कौशल
सरोवर  ने  नीर  पिलाना  निर्मल

व्योम  ने  बरसाना  नेह  नीर
जड़ी-बूटियों  ने   हरना    पीर
मंद  समीर  ने  ली  तुमसे  मनोहर  चाल
नभ  ने  झुक  चूमना  धरती  का  भाल

क्यों    फिर  भाए  मुझे  ये  नज़ारे
दिखलाते  हैं  छवि  तुम्हारे  प्यारे.
12:13p.m., 5/7/10

जीवन ये जीने को है


जीवन ये जीने को है
क्यों बैठे हो हारे से
नैया से प़र लग जाओ
डरे हो क्यों धारे से

मीठा हो, तो, प्यास बुझाये
चुन लो मोती, पानी, खारे से
सुंदर सा चुन लो फूल
तुम बढ़कर कांटे-धारे से (कंटीला पौधा)

घेरा डाल चढ़ जाओ झटपट
ऊँचे ताने से क्यों हो हारे से
उठो बढ़ चलो राहों में, सबल
न बैठो यूँ जीवन को धिक्कारे से.
5:22p.m., 14/7/10

मैं तुमसे सँवरी


तुम्हारी  आँखों  की  चमक
मेरी  बिंदिया  बन  मुस्काती  है
परछाई  जो  है  तुम्हारी
नैनों  का  कजरा  बन  जाती  है

शब्दों  से  झरते  फूलों  को
गजरा  बना  सजाती  हूँ
नेह  की  आभा  को  तुम्हारी
होठों  की  लाली  बनाती  हूँ

बाहें  तुम्हारी  सदाबहार
कंठहार  बन  मुझपर  सजते  हैं
पदों  की  मधुर  चापें तुम्हारी
पायल  बन  पैरों  में   खनकते  हैं

तुमको  छूकर  आती  बयार
मुझको  हरदम  महकाती  है
हंसी  की   झंकार  तुम्हारी
सूनी  कलाई  सजाती  है

नख  से  शिख  तक
बस  तुम  ही  तुम, हो  छाये
यूँ  अपने  नेह  से
हो  मुझको, हर  पल  सजाये.
5:26p.m., 12/7/10

कोई तुमसा नहीं


तुम्हारा प्यार जो मुझमें कहीं गहरे समाया है
बाह्य आडम्बरों से वो, अछूता रह पाया है
मेरे गिरते पगों को बढ़कर थाम लेते हो
छीन कृत्रिम सहारे आत्मबल भर देते हो

नहीं सजाते हाथ तुम्हारे, प्रसाधनों से रूप मेरा
मौन आ छाँव कर देते हो, जब करती है जीवन धूप घेरा
नहीं हो तुम आठों प्रहार बैठ, मुझ संग करते बातें
रख देते हो शब्द, मौन काज तुम्हारे करते बातें

सपनों की इन्द्रधनुषी दुनिया की कराते हो सैर
सच के सूखे धरातल पर भी टिकवाते हो पैर
है दुनिया मुझसे या तुमसे ही नहीं, जताया है
है कोई पर तुमसा नहीं, दिल ने ही बताया है
4:34p.m., 12/7/10

क्या स्वयं को कवि बना पाया


मैंने  शब्दों  का  जाल  बुना,  पर  
बुलंद  वो  आवाज    लगा  पाया
भारी, अलंकारिक  शब्द  चुने
पर  उनमें  ओज    भर  पाया

शब्दों  में  संघर्ष  रहा,  पर
जीवन  संघर्ष    भर  पाया
बही  एक  दिशा  में  ये  सरिता
पर  मानव  दिशा    दे  पाया

भोगा  इसमें  जीवन  मैंने,  पर
आत्मचिंतन    ला  पाया
पीड़ा  तो  भर  दी  इसमें  कूट-कूट  
पर  उस  जड़  में  जल    चढ़ा  पाया

रहा  इसी  समाज  में,  पर
इसे  ही  यथार्थ    बना  पाया
लिखे  सुंदर  काव्यग्रंथ  मैंने
पर  क्या  स्वयं  को  कवि  बना  पाया.
12:23 p.m., 28/6/10

उसका जीवन ……..कुम्हलाया


रखा भला कोई भेद कहीं यौवन की बहार ने
धनी हो या निर्धन भरा सबको स्व अंक में
कैसे रहती अछूती फिर समय ने फेरी छड़ी
वो खिली थी जो नन्ही कली किसी गरीब बेल में

विपत्ति कभी किसी पर भला आई एकाकी
एक तो गरीब, फिर बेटी होना था अभिशाप
यौवन तो घिर-घिर आया खिला रूपकंवल भी
गई खो मासूमियत सहते पराई नजरों का ताप

सपने भी सजा न पाई, खो गई अपना वो सर्वस्व
नोचा उसको चीलों ने, पंख उसके छितरा –छितरा गए
कुचला तन-मन मासूम का, हो गयी विक्षिप्ता वो
हो हैवानियत अश्व पर सवार पर रोज गिद्ध नोचते गए

रहा न कुछ बचा, ना तन ना मन ही उसका
इंसानों की भीड़ में उसने इंसानियत पर न देखी
जीवन जिया नहीं उसने, किया मौत ने जीते जी हरण
कई कलियों के जीवन की, समय ने ऐसी गति देखी
4:16p.m., 19/6/10

उसका जीवन - 3


थी  भरी  बड़ी  आँखों  में  बस  जिज्ञासा
 था  मासूम  बालपन  कितना  भोला-सा
बसछू   करदेख  लेने  भर  की  चाह
नहीं  थी  पीड़ा  कोई, ना  ही  कोई  डाह

कैसे  हिलती  बिन  छुए  एक  गुडिया 
पहने  हुए  थी  फ्रोक   कितनी  बढ़िया 
थे  सुंदर  चमकते  सुनहरे  लम्बे  बाल 
झपकती  आँखें  और  थे  गुलाबी  गाल

चाहत  नहींउसपरस्वामित्व  की
ना  आँखों  में कोई  अश्रु    पाने  की 
बिन  बाँह, बिन  केश  की  थी  मैली  गुडिया  जो
सस्नेह उसे  ही  सीने  से  चिपकाये  थी  खडी  वो

नित  नए  खिलौने की  करते  मांग  कुमार
कभी  इती   होतीचाहत  की  ये  पुकार
पत्थरों   कोबनाता  खिलौनाउसका  संसार
और  उसी  से  पाता  नन्हा  हृदय ख़ुशी  अपार.
4:01p.m., 14/6/10

उसका जीवन- 2


वो मजदूर माँ-बाप की एक संतति
था जीवन ही जिनकी स्वसम्पति
देखे, कोई पाँच, मौसम के चक्र
समझती कहाँ गरीबी का कुचक्र

एक मैली सी फ्रोक ढकने अंग
थे जिसके सारे ही फूल बदरंग
कमर तक की रुखी भूरी लटें
कुछ जो चेहरे से हटाये ना हटें

बनाये पत्थरों को ही खिलौने
चुने कुछ फूल-पत्ते भी सलौने
थी तृप्ति भरी उन आँखों में
नन्हे सपने भरे हुए हृदय में

थी बड़ी मनमोहक उसकी छवि
ह्रदय में बहती पवित्र जान्हवी
होती जो बड़े घर की वो गुडिया
होती ना फिर ऐसी उसकी दुनिया

बिछे होते कोमल पदों तले सुगन्धित फूल
चुभते हैं आज जिन तलवों में दिन-रैन शूल
हर हाथ उठाकर उसे अपने गले लगाता
आज है जो यहाँ अकारण धिक्कारता
2:59p.m., 14/6/10

उसका जीवन


  रुदन  ना  उत्सव, पर, जनम  उसका  हुआ
जंगल में  खिले  फूलों  सा, अनजाना  जनम
बालपन  उसका  कब-कैसे   बीता, है  किसे  भान
नन्हे  की  लंगोट  धोतेबाबा  की  भरते  चिलम

बचपन  फिरता  थाम  माँ  का  आँचल  
 गाय  के  बछड़े  सा  निरर्थक   जीवन
कचरे  से  बीनती  ले  टक्कर  कुत्तों  से  
कैसे  मिटाता  उदर-क्षुधा  पिता  कृपण

थी  माँ  जहाँ  भी  करती  चौका-चूल्हा  
थोड़े  बढ़े,  नन्हे  हाथ  धोते  ग्लास-कटोरी
करतीउनके  कर  पाने  वाले  कर्म
थे  उससे  बड़ेघर  के  कुमारकुमारी

ऐसा  था  बचपन  कुछ   स्मरणीय
उलझी  लटेंफटेमैले  कुचेले  वस्त्र
खोयी  नैनो  से  चमकमुख-चंद्र  पर  ग्रहण
होती     गरीबी  तो  होता  जीवन  त्रस्त
9:15pm,  13/6/10