जान, सामीप्य में पीड़ा मिलना
मेरा मुँह मोड़, अश्रु लिए चलना
हर पल छिप कर उसे निहारना
उसके सामने स्वयं को छिपाना
नहीं हैं वो सोचों में प्रतीत कराना
पथ को टकटकी लगा भी देखना
क्योंकर हुआ मेरा उससे सामना
राहों का हमारी परस्पर उलझना
नियति में दूरी, हृदय का उसी पर आना
लिखी भाग ने मेरे कैसी आह विडम्बना
@Prritiy, 10.15 pm, 15 August 2015
बहुत सुंदर भावनायें और शब्द भी ...बेह्तरीन अभिव्यक्ति
ReplyDeleteगंभीर , गहन और सुन्दर कविता
ReplyDeletesunder bahot sunder...........!!!!!
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