थी भरी बड़ी आँखों में बस जिज्ञासा
था मासूम बालपन कितना भोला-सा
बस, छू कर, देख लेने भर की चाह
नहीं थी पीड़ा कोई, ना ही कोई डाह
कैसे हिलती बिन छुए एक गुडिया
पहने हुए थी फ्रोक कितनी बढ़िया
थे सुंदर चमकते सुनहरे लम्बे बाल
झपकती आँखें और थे गुलाबी गाल
चाहत नहीं, उसपर, स्वामित्व की
ना आँखों में कोई अश्रु न पाने की
बिन बाँह, बिन केश की थी मैली गुडिया जो
सस्नेह उसे ही सीने से चिपकाये थी खडी वो
नित नए खिलौने की करते मांग कुमार
कभी न, इती होती, चाहत की ये पुकार
पत्थरों को, बनाता खिलौना, उसका संसार
और उसी से पाता नन्हा हृदय ख़ुशी अपार.
4:01p.m., 14/6/10
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