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Wednesday, July 28, 2010

उसका जीवन


  रुदन  ना  उत्सव, पर, जनम  उसका  हुआ
जंगल में  खिले  फूलों  सा, अनजाना  जनम
बालपन  उसका  कब-कैसे   बीता, है  किसे  भान
नन्हे  की  लंगोट  धोतेबाबा  की  भरते  चिलम

बचपन  फिरता  थाम  माँ  का  आँचल  
 गाय  के  बछड़े  सा  निरर्थक   जीवन
कचरे  से  बीनती  ले  टक्कर  कुत्तों  से  
कैसे  मिटाता  उदर-क्षुधा  पिता  कृपण

थी  माँ  जहाँ  भी  करती  चौका-चूल्हा  
थोड़े  बढ़े,  नन्हे  हाथ  धोते  ग्लास-कटोरी
करतीउनके  कर  पाने  वाले  कर्म
थे  उससे  बड़ेघर  के  कुमारकुमारी

ऐसा  था  बचपन  कुछ   स्मरणीय
उलझी  लटेंफटेमैले  कुचेले  वस्त्र
खोयी  नैनो  से  चमकमुख-चंद्र  पर  ग्रहण
होती     गरीबी  तो  होता  जीवन  त्रस्त
9:15pm,  13/6/10

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