न रुदन ना उत्सव, पर, जनम उसका हुआ
जंगल में खिले फूलों सा, अनजाना जनम
बालपन उसका कब-कैसे बीता, है किसे भान
नन्हे की लंगोट धोते, बाबा की भरते चिलम
बचपन फिरता थाम माँ का आँचल
गाय के बछड़े सा निरर्थक जीवन
कचरे से बीनती ले टक्कर कुत्तों से
कैसे मिटाता उदर-क्षुधा पिता कृपण
थी माँ जहाँ भी करती चौका-चूल्हा
थोड़े बढ़े, नन्हे हाथ धोते ग्लास-कटोरी
करती, उनके, न कर पाने वाले कर्म
थे उससे बड़े, घर के कुमार, कुमारी
ऐसा था बचपन, न कुछ स्मरणीय
उलझी लटें, फटे, मैले कुचेले वस्त्र
खोयी नैनो से चमक, मुख-चंद्र पर ग्रहण
होती न गरीबी तो, न होता जीवन त्रस्त
9:15pm, 13/6/10
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