रखा भला कोई भेद कहीं यौवन की बहार ने
धनी हो या निर्धन भरा सबको स्व अंक में
कैसे रहती अछूती फिर समय ने फेरी छड़ी
वो खिली थी जो नन्ही कली किसी गरीब बेल में
विपत्ति कभी किसी पर भला आई एकाकी
एक तो गरीब, फिर बेटी होना था अभिशाप
यौवन तो घिर-घिर आया खिला रूपकंवल भी
गई खो मासूमियत सहते पराई नजरों का ताप
सपने भी सजा न पाई, खो गई अपना वो सर्वस्व
नोचा उसको चीलों ने, पंख उसके छितरा –छितरा गए
कुचला तन-मन मासूम का, हो गयी विक्षिप्ता वो
हो हैवानियत अश्व पर सवार पर रोज गिद्ध नोचते गए
रहा न कुछ बचा, ना तन ना मन ही उसका
इंसानों की भीड़ में उसने इंसानियत पर न देखी
जीवन जिया नहीं उसने, किया मौत ने जीते जी हरण
कई कलियों के जीवन की, समय ने ऐसी गति देखी
4:16p.m., 19/6/10
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