वो मजदूर माँ-बाप की एक संतति
था जीवन ही जिनकी स्वसम्पति
देखे, कोई पाँच, मौसम के चक्र
समझती कहाँ गरीबी का कुचक्र
एक मैली सी फ्रोक ढकने अंग
थे जिसके सारे ही फूल बदरंग
कमर तक की रुखी भूरी लटें
कुछ जो चेहरे से हटाये ना हटें
बनाये पत्थरों को ही खिलौने
चुने कुछ फूल-पत्ते भी सलौने
थी तृप्ति भरी उन आँखों में
नन्हे सपने भरे हुए हृदय में
थी बड़ी मनमोहक उसकी छवि
ह्रदय में बहती पवित्र जान्हवी
होती जो बड़े घर की वो गुडिया
होती ना फिर ऐसी उसकी दुनिया
बिछे होते कोमल पदों तले सुगन्धित फूल
चुभते हैं आज जिन तलवों में दिन-रैन शूल
हर हाथ उठाकर उसे अपने गले लगाता
आज है जो यहाँ अकारण धिक्कारता
2:59p.m., 14/6/10
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