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Sunday, May 30, 2010

है नहीं ये खेल

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वो जो हमने खेल इक खेला
खेल हमें वो बना गया
यूँ ही हँसते खेलते देखो
पलकों में नमी दे गया


जोगी तुम तो बन बैठे
मैं बनकर भी नहीं बनी
कहकर भी जो न कह पाई
तुमने सुनकर भी नहीं सुनी


मेरी मुखरित ख़ामोशी
तुम्हारी ख़ामोशी मुखरित कर गई
तुम शब्दों में वो कहते गए
जो मौन ह्रदय मैं कहती गई


चाह की ऊष्मा तुम लाये
शीतल चांदनी मैं बन बैठी
डरकर मैं स्वयं की तपिश से
बदली की ओट जा बैठी


मनमयूर जो नाचा फिर भी
रंगों को श्यामल किया मैंने
तुमको दूर करते करते
मन समर्पण किया मैंने



घाटी में पुष्प खिलाये जो
चोटी में रोपण तुमने किया
शीतलता जो भरना चाहा
उसने ही उष्मित किया


उठी जो लहरें ऊँची-ऊँची
मैं घिरने से बच ना पाई
भीग क़र लता जो निखरी
तुमसे नैन मिला ना पाई


गहराई की थाह क्या पाते
डूबकर उभर ना पाए
बिन डूबे भी यूँ हम डूबे
न तुमने जाना न हम जान पाए


चांदनी ने सहलाया तुमको
पर स्वयं चांदनी जल रह गई
तुम्हे जलन ना हो ओ जोगी
मौन पिघलकर वो रह गई


तुमको कहाँ है दूर किया
मैं स्वयं बंदी बन बैठी
जलकर इस खेल के सत्य में
सिसकी को मौन कर बैठी



सोचा चले गए तुम बेरंग
बिना कोई खरोंच पाए
इस सुख को लिए ह्रदय में
अश्रु मेरे थे मुस्काए


जाने दिया, न कहा रुकने पलभर
कि टूट न जाये रुका बाँध
कुचला तनमन लिए भला मैं
क्या रख सकती थी तुमको बाँध


पर जो बैठी हाय सोचने
गई मेरी रूह भी कांप
तुम भी चले गए यूँ बढ़कर
दर्द अपना वो मुझसे ढांप


की जो दूरी, थी मज़बूरी
स्वयं को नहीं पाई मैं बाँध
जोगी तुम बहता पानी
मेरे टूटे हुए हैं बांध


तुम्हारा जग तो बेहद मोहक
बना कल्पना, रखते तुम मुझको
मेरा संसार बना अश्रु से
शिव, सत्य बन तड़पाता मुझको


इस दुनिया मैं रहती हूँ पर
इस दुनिया से अनजान हूँ मैं
चन्द्रिका ये रहती कल्पना में
कहती दुनिया नादान हूँ मैं


ना सोचा मैंने रुकेगा ऐसे
मेरा-तेरा मासूम सा खेल
खेला नहीं क्यूँ, ज्यों तुमने चाहा
ना कह ही पाई है नहीं ये खेल

3:09pm, 13/4/10

3 comments:

  1. prity kya kahun ...is maun peeda ka sanjhi keval hriday ho sakta hai..aur wo is kasak ko mahsus kar raha hai...parantu mai swayam nishabd hun....

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  2. प्रीति,
    पता नहीं जोगी समझ भी पाए कि नहीं कभी, लेकिन पगली की पीड़ा की तड़प मेरे दिल में कसक छोड़ जाती है हमेशा. बहुत मार्मिक अभिव्यक्ति पगली की.

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