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Sunday, May 30, 2010

उसी को सोच, बस, मैं लिखती हूँ

उसी को सोच, बस, मैं लिखती हूँ
ना सोचो उसके लिए लिखती हूँ



वो है खोया अपनी ही दुनिया में
स्वप्निल परियों की बगिया में


बहते आंसू, टूटे दिल, कहाँ के वादे उसके लिए
दो पल की मादक खुशबू काफी है उसके लिए


दिखती है, कम्पन मेरे होठों की, हाँ उसको
फिर भी दिखती है ये कम्पन, कहाँ उसको


अब मैं उससे दूर-दूर ही बसती हूँ
नेह भूल, दर्द को ही तरसती हूँ


पूजा के फूल, रखती हूँ, उसके हाथों में
रौंद देता है जाने-अनजाने बातों-बातों में


उसकी झूठी दुनिया स्वर्ग है उसके लिए
कैसे ठहरे सच की नगरी में मेरे लिए


लुभाता मेरा रूप-श्रृंगार अब भी उसको
पर मंदिर और राहों में अंतर ना उसको


उसकी सोचों में अब मैं कहाँ रहती हूँ
उसी को सोच, बस, मैं अब रहती हूँ

4:13pm, 5/4/10

1 comment:

  1. dil ko chhune wali kavita hai .ek stri ke man ki peeda ko kitne achche se barnan kiya hai

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