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Friday, April 2, 2010

वो दूरियां बढाने का सामान सजाते रहे

वो दूरियां बढाने का सामान सजाते रहे
हम नासमझ से फिर भी उन्हें बुलाते रहे 

राहों में दीवारें वो चुनवाते रहे
मान परीक्षा हम उन्हें गिराते रहे
फूलों की बगिया को दूर हटाते रहे
सुगंध से हम खुद को बहलाते रहे 

काँटों में वो पल-पल उलझाते रहे
दामन बचा हम  फूल बरसाते रहे 

गैरों के करीब वो जाते रहे
अपनों से दूर हम आते रहे
अपना दामन वो छुडाते रहे
वफ़ा के वादे हम निभाते रहे


12:14pm, 2/4/10

1 comment:

Thanks for giving your valuable time and constructive comments. I will be happy if you disclose who you are, Anonymous doesn't hold water.

आपने अपना बहुमूल्य समय दिया एवं रचनात्मक टिप्पणी दी, इसके लिए हृदय से आभार.