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Wednesday, October 10, 2012

मुक्ति मिलन




वो  कहते  थे  तुम  रूठे  तो  जहाँ  रूठ  जायेगा
तेरे  बिना  ये  दीवाना  पल  भर    रह  पायेगा
फूलों  से  भरा  चमन  वीराना  नजर  आएगा
सितार  बजेगा  तो  सही  सुर  सजा    पायेगा

आज  मेरी  हँसी  उसे  भाती  नही
बहते  अश्रु  अब  नजर  आते  नहीं   

कुछ  पल  का  खेल था, बस, चाहत  उसकी 
लहरों  सा  मेल  हो  थी  कहाँ  चाहत  उसकी
तस्वीर  है  नई  आज  आँखों  में  उसकी
नए  वादों  की  झड़ी  है  बातों  में  उसकी

आज  वो  कोई  नहीं  है  मेरा
कहता  था  सदा  के  लिए  हूँ  तेरा

देखो  मेरी  गली  में  क्या  नजारा  है
लोगों  की  आमद  से  भरा  घर  सारा  है
एक  मुस्कान  को  मेरी, मेरे  करीब    पुकारा  है
पूछते  हैं  रूह  कहाँ  है  क्यूँ  भला  जमीं  पर  उतारा  है

आज  तुम्हे  दिखे  है  दूर  जो  उजली  किरण
हो  आजाद  तुममैं, हुआ  है  मुक्ति  से  मिलन

4.55pm, 10/10/2012


3 comments:

  1. आज मेरी हँसी उसे भाती नही
    बहते अश्रु अब नजर आते नहीं

    सुन्दर भावपूर्ण प्रस्तुति.
    सब मन का ही खेल है.
    किस् समय क्या हो जाये मन ही जाने.
    काश!मन को जान पाते हम.

    मेरे ब्लॉग को भुलाया आपने.
    काश! आपको कभी याद आजाये.

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  2. बहुत सुंदर

    देखो मेरी गली में क्या नजारा है
    लोगों की आमद से भरा घर सारा है
    एक मुस्कान को मेरी, मेरे करीब आ पुकारा है
    पूछते हैं रूह कहाँ है क्यूँ भला जमीं पर उतारा है

    क्या बात, बहुत बढिया

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  3. अजीब बात है ना ...सब कुछ बदलता रहता है
    रेत के पन्ने पर लिखे शब्द की तरह ..प्रेम के वादों
    को भी लहरें मिटा जाती है
    कुछ भी स्थायी नहीं

    कुछ पल का खेल था, बस, चाहत उसकी

    जब सत्य से हम भिग्य है तो मन में वेदना क्यों
    यही तो कारन है जिसके वशीभूत हम कविता रचाते है
    आपके द्वारा की गयी ,सशक्त अभिव्यक्ति ..बधाई

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