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Monday, January 30, 2012

क्यूँ तुम तुम न रह सके


मन में वो जो एक नेह-दीप जला
जग को क्या मुझे ही न पता चला
डालता रहा जो वक़्त धृत निरंतर
पलता रहा विश्वास मेरे मन अंतर

बोलों पर तेरे न संदेह कभी किया

संग तेरे हर पल सत्य मानकर जिया
मान तेरे भावों का सदा रखना चाहा
जो कहा तुमने, किया, चाहा-अनचाहा
वचनों को पुष्प, नेह को चांदनी माना
न छुपाया कोई राज, ना सच ही अपना


पर तुम क्यूँ, तुम न रह सके

क्यूँ वो सच मुझसे न कह सके
ओह ये क्या कर गए दिल पर जुल्म
आह मिटा गए अपनी छवि स्वयं तुम
जानकर भी क्यूँ, मानती नहीं प्रीत मेरी
वो नेह, वो चाहत की बातें न थी सच तेरी

1.04pm, 19/1/2012

4 comments:

  1. मन के बेहतरीन उदगार !

    सादर

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  2. बोलों पर तेरे न संदेह कभी किया

    संग तेरे हर पल सत्य मानकर जिया

    मान तेरे भावों का सदा रखना चाहा

    जो कहा तुमने, किया, चाहा-अनचाहा

    वचनों को पुष्प, नेह को चांदनी माना

    न छुपाया कोई राज, ना सच ही अपना....bahut achchha

    ReplyDelete

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