पगली! हाँ मानती हूँ, हूँ मैं पगली
चल पड़ी कैसी पागलपन से मैं भरी
कहते हो तुम क्यूँ है इतना पागलपन बाँवरी
मैं कैसे जानूं कैसे समझूँ मैं तो हूँ बस पगली
क्यूँ ऐसी बेकरारी ऐसी दीवानगी कहो तो
मैंने तो जाना नही, क्या तुम जान पाये हो
क्यूँ नहीं भाते ये चाँद ये झिलमिलाते तारे
क्यूँ नही लुभाते मेरे मन को ये सारे नज़ारे
क्यूँ फिरुँ सुलगती बांवली सी दिन भर
क्यूँ अंधेरों में देखूं परछाइयाँ मैं रात भर
ना जानूं इस राह की मंजिल क्या होगी, कहाँ होगी
क्या जानूं कब वो बिन भोर वाली सखी निशा होगी
12.14am, 1 December 2013
सुन्दर,कोमल रचना...
ReplyDelete:-)पगली बहुत प्यारा शब्द है...मेरे लिए..
:-)
ओहो...आप पगली भी हैं......हमे नहीं पता था :)
ReplyDeleteसादर
achha majak Yashwantji varna mai to kabse pagli hun :)
Deletedhanywad aapke sneh ke liye.
shubhkamnayen
कल 07/12/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
ReplyDeleteधन्यवाद!
very nice
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