न दे न्योता शाह आने को गैर के महल में
नही तेरी मैं मुमताज तो क्यूँ है मेरी रूह कैद
माना मैंने, मेरे रूप के चर्चे नही सारे जहाँ में
ना किया मैंने भंवरों को अपनी जुल्फों में कैद
मत बनाना मेरे मरने के बाद ऐ शाह ताजमहल
जीते जी दे दी है दर्द के मकबरे में हरपल की कैद
नहीं चाह किसी रियासत की, ना चाहूँ, हो मेरा महल
मिल जाये जो मुझे तेरे पलकों की छाँव, बाँहों की कैद
3.43pm, 5 sept 2013
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन अब रेलवे ऑनलाइन पूछताछ हुई और आसान - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति.. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी पोस्ट हिंदी ब्लॉग समूह में सामिल की गयी और आप की इस प्रविष्टि की चर्चा - रविवार-8/09/2013 को
ReplyDeleteसमाज सुधार कैसे हो? ..... - हिंदी ब्लॉग समूह चर्चा-अंकः14 पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया आप भी पधारें, सादर .... Darshan jangra
नमस्कार आपकी यह रचना कल रविवार (08-09-2013) को ब्लॉग प्रसारण पर लिंक की गई है कृपया पधारें.
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर प्रस्तुती।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर :-)
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया
ReplyDeleteसादर
प्रेम में मिले आंसू भी ताज महल से कम नहीं ...
ReplyDeleteबहुत खूब ...
एक ताजमहल ने कितने लोगों की कल्पनाओं पर शासन किया है. हैरानी होती है. लाइफ़ की सहजता भा आकर्षित करने वाली होती है. आपने यह बात फिर से याद दिलाई है. बहुत-बहुत शुक्रिया.
ReplyDeletebahut khub
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