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भान था 'कल' है ग्रहण
रात ही लग गया ग्रहण
उस रिश्ते का सूरज डूबा
यूं ही रोंप लिया था पौधा
मैंने अपने मन-आँगन में
आन बसा हर धड़कन में
यूं गहरे पैठ लिया था पौधा
देने शक्ति उस जीवन को
मैं, हो रही, निर्जला
स्नेह्भूमि ना रही निर्जला
किया स्वीकार उस जीवन को
सुशोभित पुष्पित तरुवर वो
पुष्पित लता छू भर, बैठी
आह! ये क्या कर बैठी
कांटे उगा गया तरुवर वो
काया भीतर रक्त-रंजित क्षत प्राण
क्या तोडा, है तुमको भान?
क्या खोया, है तुमको भान?
पुष्पित जीवन रहे, कहे क्षत प्राण!
11.23 p.m.; 23 jan, 2010.
बहुत सुन्दर और ह्रदय को छू रही आपकी कविता......प्रीति जी !
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