वो दिया जो प्रज्ज्वलित हुआ मन में
धुंआ धुंआ सा क्यूँ कर भर गया मुझमें
2.56pm, 27 jan 14
मेरे मितरा
बड़ी
जिद्दी हो
आखिर क्या
हासिल इस
चुप्पी से
बहुत दिन हुए
छोडो ना
नाराजगी, कहा उसने
सच
कहा, कुछ
हासिल नही,
इस चुप्पी
से
सिवा तड़प के, आंसू
के, इस
जुदाई की
पीड़ा के
मैं
क्या करूँ पर, तुम्ही कहो
संग
मेरे होकर
भी भटकते
हो
गैरों की राह
दिन रैन
तकते हो
करीब ला कर
बेदर्दी से
झटकते हो
कहते हो ना
करूँ शिकायत मैं
पींग भरो जब
तुम वहाँ
झूलों में
कि
तब लौट
आओगे तुम
पास मेरे
पर
कहो क्यूँ
है ये
लगते फेरे
तुम्हारे
जब
मैं हूँ
दिल के
इतने करीब
तुम्हारे
कहते हो, तुम
हमारे, हम तेरे
फिर
क्यूँ चाहते
हो, रहे,
गैर घेरे
देते हैं दर्द, भरते हैं
अग्नि मेरे
दिल में
करते हो यूँ
दूर और
ना रह
सकूँ दूर
मैं
कहा
तुमने मुझे
ना कहना
क्या कर
दिया
तुम ही कहो ना
मुझसे तुमने
क्या ना
किया
मैं
चुप रही,
पर, आँखों
ने पढ़
लिया
जानते हो दिखा जो, दिल पर
क्या किया
और क्या चाहूंगी मितरा तुमसे मैं
एक
तेरी चाह
के सिवा
और क्या
है
तुमसे दूर या
करीब आंसू
मिलते हैं
तुम
ही कहो
अब करूँ
क्या मितरा
मैं
ना
जी सकूँ
ऐसे और
जीना भी
चाहूँ मैं
4.14pm 24 jan 14
भावो को खुबसूरत शब्द दिए है अपने...
ReplyDeleteखुबसूरत
ReplyDeleteतुम ही कहो अब करूँ क्या मितरा मैं
ReplyDeleteना जी सकूँ ऐसे और जीना भी चाहूँ मैं
सुंदर भाव और सुंदर शब्दों से सजी रचना है …
बहुत खूबसूरत !