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Wednesday, January 16, 2013

milna mujhse मिलना मुझसे




खुद  को  देखे  अरसा  बीता  अपनी  आँखें  भेजो  ना
खुद  को  सुने  बरसों  बीते  कोई  बोल  अब  बोलो  ना
खुद  से  मिले  अरसा  बीता  जरा  मेरे  करीब  आओ  ना
खुद  को  संवारे  अरसा  बीता  उलझी  लट  सुलझाओ  ना
खुद  से  गाये  वक़्त  बीता  गीत  कानों  में  गुनगुनाओ  ना
खुद  से  बोले  बरसों  बीते  मुझसे  मुझको  अब  मिलाओ  ना
खुद  को  जाने  अरसा  बीता, मेरे, अब  मुझसे  मिल  जाओ  ना

10.59pm, 16 dec12

8 comments:

  1. शुरुआत बेहतरीन है। कविता का सार भी अद्भुत है कि प्रेम में अपने और पराए का फर्क मिट सा जाता है। इंसान खुद के वजूद से अजनबी हो जाता है। अजनबी उसे खुद से भी ज्यादा अपना लगने लगता है। अपनी परछाई से भी आगे खुद अपना वजूद। काबिल-ए-तारीफ। आपकी रचना का स्वागत है।

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  2. बहुत खूब ... प्रेम भरा निमंत्रण ...

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  3. क्या बात है - बहुत सुंदर

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  4. bahut khub apne aapse hi kahana ki "mujhase ,mujhame mil zaao .."
    achchhi kavita ..

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  5. बेहद लाजवाब हैं हार्दिक बधाई

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