खुद
को
देखे
अरसा
बीता
अपनी
आँखें
भेजो
ना
खुद को सुने बरसों बीते कोई बोल अब बोलो ना
खुद से मिले अरसा बीता जरा मेरे करीब आओ ना
खुद को संवारे अरसा बीता उलझी लट सुलझाओ ना
खुद से गाये वक़्त बीता गीत कानों में गुनगुनाओ ना
खुद से बोले बरसों बीते मुझसे मुझको अब मिलाओ ना
खुद को जाने अरसा बीता, मेरे, अब मुझसे मिल जाओ ना
खुद को सुने बरसों बीते कोई बोल अब बोलो ना
खुद से मिले अरसा बीता जरा मेरे करीब आओ ना
खुद को संवारे अरसा बीता उलझी लट सुलझाओ ना
खुद से गाये वक़्त बीता गीत कानों में गुनगुनाओ ना
खुद से बोले बरसों बीते मुझसे मुझको अब मिलाओ ना
खुद को जाने अरसा बीता, मेरे, अब मुझसे मिल जाओ ना
10.59pm, 16 dec12
bhaut hi khubsurat....
ReplyDeleteशुरुआत बेहतरीन है। कविता का सार भी अद्भुत है कि प्रेम में अपने और पराए का फर्क मिट सा जाता है। इंसान खुद के वजूद से अजनबी हो जाता है। अजनबी उसे खुद से भी ज्यादा अपना लगने लगता है। अपनी परछाई से भी आगे खुद अपना वजूद। काबिल-ए-तारीफ। आपकी रचना का स्वागत है।
ReplyDeleteबहुत खूब ... प्रेम भरा निमंत्रण ...
ReplyDeleteबेहतरीन
ReplyDeleteसादर
बहुत सुंदर अच्छी रचना
ReplyDeleteक्या बात है - बहुत सुंदर
ReplyDeletebahut khub apne aapse hi kahana ki "mujhase ,mujhame mil zaao .."
ReplyDeleteachchhi kavita ..
बेहद लाजवाब हैं हार्दिक बधाई
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