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Tuesday, May 15, 2012

तुम कहो





जो  मैं  कहूँ  तुमसे  सवेरा  नहीं  हुआ
क्या  तुम  अवि  सम  प्रकाश  भर  दोगे

जो  मैं  कहूँ  तुमसे  चाँद  मेरे  नभ  में    छाया
क्या  तुम  अपनी  शब्द -चाँदनी मेरे  आँगन  कर  दोगे

जो  मैं  कहूँ  ये  बदल  बरसकर  भी  ना  बरसे  हैं
क्या  तुम  मेरे  तप्त  हृदय  में  स्नेह -वृष्टि  करोगे

जो  मैं  कहूँ  तुमसे  आंसू  में  डूब  रही  है  जीवन -नैया
क्या  तुम  क्या  तुम  खिवैया  बन  मुझे  पार  लगा  दोगे

जो  मैं  कहूँ  तुमसे  टूट  रही  मेरी  आस  पल -पल
क्या  तुम  आशा  का  दीपक  मेरे  लिए  जला  दोगे

जो  मैं  कहूँ  सपने  मेरे  बिखेर  गए  हैं
क्या  तुम  अपने  स्वप्न  मेरे  नैनों  में  भर  दोगे

जो  मैं  कहूँ  मेरे  पैरों  में    रहा  कोई  बल
क्या  तुम  अपनी  मंजिल  का  पता  दे  गति  दोगे

जो  मैं  कहूँ  कलुषित  हो  गई  मेरी  आत्मा
क्या  तुम  अपनी  भक्ति  के  जल  से  धो  दोगे

जो  मैं  कहूँ  तुमसे  स्वच्छ    रह  पाई  हूँ  मैं
क्या  तुम  स्पर्श  कर  लोहे  को  कुंदन  बना  दोगे

जो  मैं  कहूँ  तुमसे  हारने  लगी  हूँ  जीवन  से
क्या  तुम  मेरा  जीवन  बन  मुझे  विजयी  कर  दोगे

जो  मैं  कहूँ  जग  के  तमाम  नियम, पाश  खोल  चले  आओ
क्या  तुम  मेरे  सानिध्य  सदा  के  लिए  मेरा  बनकर  आओगे
10.22am, 15/5/2012

3 comments:

  1. You Are A Terrific Writer. I Have No Words Sarkaar Really You Are Awesome.

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  2. सुंदर विलक्षण रचना है आप की तुम कहो !!

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  3. जो मैं कहूँ तुमसे स्वच्छ न रह पाई हूँ मैं
    क्या तुम स्पर्श कर लोहे को कुंदन बना दोगे
    BAHUT KHUB

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आपने अपना बहुमूल्य समय दिया एवं रचनात्मक टिप्पणी दी, इसके लिए हृदय से आभार.