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Thursday, February 23, 2012

मुक्त किया मैंने


लो  अपना  बंधन  हटा  मुक्त  किया  मैंने 
कह  तो  दिया,  तुम्हे,  मेरे  बाँवरे  मन  ने
कभी  न   मिलेगी  आजादी  इस  दिल  को
पगली  तो  चाहे  है,  हरपल  बस  तुम्ही  को

भर  लिया  है  इन्तजार  हर  पल  का
अब, अब आएगा  संदेसा  मेरे  नाम  का
द्वार  को,  बेचैन  मेरी  अँखियाँ,  तकती  हैं
नाम  तेरा  ले  अब  भी  सांसें  मेरी  चलती  हैं


आस  मेरी  टूटकर  भी  नहीं  है  टूटती
विश्वास  की  चांदनी  जरा  भी  न  घटती
कहता  है  मन,  प्रियतम  मेरे,  तुम  आओगे
मेरा   नेह  दिल  से  तुम  भी  न  भुला  पाओगे

रोते  नैन  भी  तब  मुस्कुरा  देते  हैं
ओंठ  मेरे जब  भी  नाम  तेरा  लेते  हैं
तेरे  नाम  की  बिंदिया  सजा  लेती  हूँ
दर्द  को  आँखों  का  कजरा  बना  लेती  हूँ


आजाद  किया  तुमको, ओ  प्रिय  मेरे
कि  लौट  आओ,  बनके,  अब  बस  मेरे
लेंगे  हम मिलकर,  जीवन  के,  हर  फेरे
मैं  सदा  रहूँ  तुम्हारी, तुम  रहो  सदा  मेरे
4.13pm, 22/2/2012 


14 comments:

  1. वाह ...बहुत ही बढि़या।

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  2. बेहतरीन भाव
    सुंदर अभिव्यक्ती:-)

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  3. एक दूसरे के बंधन मेन बंधे फिर मुक्त कहाँ ? अच्छा भाव संयोजन

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  4. मुक्ति में बंधन की तलाश. सुंदर कविता.

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  5. इकतरफा प्यार की पीड़ा ....भावपूर्ण प्रस्तुति !

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  6. अच्छी रचना...
    सुन्दर भाव उकेरे हैं...

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  7. आस मेरी टूटकर भी नहीं है टूटती
    विश्वास की चांदनी जरा भी न घटती
    कहता है मन, प्रियतम मेरे, तुम आओगे
    मेरा नेह दिल से तुम भी न भुला पाओगे

    बहुत खूबसूरत भाव...

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  8. अनुपम स्नेहमय समर्पण.

    आपकी प्रस्तुति लाजबाब है प्रीति जी,
    आपके सुन्दर नाम को सार्थक करती हुई.

    बहुत बहुत आभार,जी.

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  9. रोते नैन भी तब मुस्कुरा देते हैं
    ओंठ मेरे जब भी नाम तेरा लेते हैं
    तेरे नाम की बिंदिया सजा लेती हूँ
    दर्द को आँखों का कजरा बना लेती हूँ

    WAAH WAAH ..

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  10. bahut achchhi kavita ,aapki kavitaao ka javaab nahi ,hriday sprshi hoti hai aapki kavitaaye

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आपने अपना बहुमूल्य समय दिया एवं रचनात्मक टिप्पणी दी, इसके लिए हृदय से आभार.