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Saturday, September 3, 2011

अधूरापन- 1



मैं जब आई आत्म लायी
आत्मा से मिलने ही आई
पर जाने क्यों तुम आए
ये तन लेकर ही आए
मैं रही सदा तुम्हे हृदय से लगाये
तुम अपनी कमी से उबर न पाए
जिस मन को तुम्हे समर्पण किया
रौंद उसे जीते जी मृत किया
जिस तन से की तुम्हारी सेवा
दी हस्त, दन्त निशान की मेवा
क्यों अपने को तुमने कमतर माना
जब तुमको था अपना जीवन माना

1:43p.m., 13/8/10

5 comments:

  1. आप तो कमाल ही कर रहीं हैं प्रीति जी
    अपनी सुन्दर प्रस्तुति से ही नहीं,
    ब्लॉग के खूबसूरत डिजाईन से भी.
    अधूरेपन को शानदार ढंग से उकेरा है आपने.
    सुन्दर प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत आभार.

    मेरे ब्लॉग पर आपका इंतजार है.

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  2. प्रीति जी
    सस्नेहाभिवादन !

    मैं जब आई आत्म लायी
    आत्मा से मिलने ही आई
    पर जाने क्यों तुम आए
    ये तन लेकर ही आए


    क्यों अपने को तुमने कमतर माना
    जब तुमको था अपना जीवन माना

    यही तो है अधूरापन !
    अच्छी रचना है …

    …और हां , ख़ूबसूरत बैकग्राउंड के साथ ब्लॉग बहुत अच्छा लग रहा है … इसके लिए अलग से बधाई !

    अंत में…
    बीते हुए हर पर्व-त्यौंहार सहित
    आने वाले सभी उत्सवों-मंगलदिवसों के लिए
    हार्दिक शुभकामनाएं !
    - राजेन्द्र स्वर्णकार

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  3. सुन्दर प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत आभार|

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  4. adbhud bhavabhivyakti.....man bheeg sa gaya...shubh kamnaye.

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  5. आपकी इस कविता ने मुझे कुछ याद दिला दिया , मेरी हही एक कविता , आप उसे अवश्य पढ़े : ये लिंक है उस कविता का !!!

    http://poemsofvijay.blogspot.com/2010/09/blog-post.html

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Thanks for giving your valuable time and constructive comments. I will be happy if you disclose who you are, Anonymous doesn't hold water.

आपने अपना बहुमूल्य समय दिया एवं रचनात्मक टिप्पणी दी, इसके लिए हृदय से आभार.