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Friday, February 6, 2009

टूटा तारा

आह माँ तुझसे बिछुडी
हुँ मैं जबसे उखडी
रोपा था मुझे जहाँ
बडी तेज हवाएँ हैं
चिलचिलाती धूप है
पाँव जम नही पा रहे
तेरे आँचल के छाँव की शीतलता
माँ मैं कभी समझी नही
आज याद आती है
नही जानती क्यों अपने से दूर किया
मुझसे क्या त्रुटि हुई माँ
मुझे क्या याद करती हो
क्या बाबा भी कहते हैं मिलने को
क्यों कहते थे मेरी आँख का तारा हो
अब समझ आता है जब देखती हूँ टूटते तारे को
माँ मैंने ऐसा क्या किया
मुझे टूटा तारा बना दिया

3 comments:

  1. तेरे आँचल के छाँव की शीतलता
    माँ मैं कभी समझी नही
    आज याद आती है ..........
    thanks i missed the caring of mom....

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  2. टूटा तारा...हां हां हां हां ...क्यों प्रति जी तारा ही क्यों टूटता है सूरज और चाँद क्यों नहीं ..क्योकि सूरज चाँद तो बेटे है और तारे बेटियाँ ....हमेशा बेटियाँ ही बिछुड़ती है ..आपकी और हमारी बेटी भी ये ही कहेगी कभी जो आप कह रही हो....नगर उस वक्त हम बहरे हो चुके होंगे...
    वैसे कविता बहुत अच्छी है ..एक बेटी अपने माँ बाप से सवाल कर रही है क्यों तुने मुझे अपने से दूर किया..
    अमीर खुसरो जी की दो लाइन याद आ रही है मुझे इस पर..

    भैया को दीने तुने महल दुमहले
    हमको दिया परसेश रे
    लक्खी बाबुल मेरे
    काहे को ब्याही बिदेश रे
    लक्खी बाबुल मेरे

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  3. छू गयी मन को ये रचना... कोमल भावों से भर दिया है तुमने..

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