वो चाँदनी रात जब हुआ मेरा तुम्हारा मिलन
पुरुष व प्रकृति का असामान्य अनोखा लगन
पुरुष को प्रकृति की चाह, पर, नहीं कोई चाह
चंद्रिके को योगी की चाह, निरंतर देखती राह
पर उस रात हुए थे तुम भी इस पगली के
छाई रही चंद्रिके भी मानस में देर तक योगी के
तुम्हारे ह्रदय-धरा में बरसी स्नेह रसधारा
छुआ नेह ने, जो तुमपर निश्छल मैंने वारा
मन पाखी की किलकारियां थी मेरे मन आँगन गूंजी
चाहों के जंगल के आकाश में मेरी पुकार भी गूंजी
ढूँढ रहे थे तुम मुझे अनंत नील आकाश में
थी, ह्रदय में समाई चंद्रिके, तुम्हारे ही चरणों में
मन था तुम्हारा मयूर सम नाचा, पवन ने बढ़ाई धड़कन
योगी तो भूल से गए, बैठी है पगली आज भी थामे धड़कन
11:47p.m., 16/5/१०
ये कविता कुछ ठीक से समझ नहीं आई .. इस कविता के अंदर बहुत कुछ है ....समय मिले तो बताए जरुर!!
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