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Thursday, October 7, 2010

ये पगली मौन रहेगी!

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मैं पगली!
अनंत काल से
मैं पगली हूँ.

वो योगी
जिसकी थी
मैं,
मेरा रोम-रोम.

मेरा रोम-रोम था
उसके लिए,
उसके लिए
अपना मन पिंजरा
खोल दिया.

खोल दिया है
उसे
अनंत
आकाश में
विचरण करने.

चाहत
न थी
मेरी ये,
वो
था
चाहत म्रेरी.
पर
कैसे
सहती
उसकी घुटन,
उसका मौन

उसका मौन
आग्रह,
उसके
हिस्से की
हवा
दे दी,
दे दी उसे
उसकी हवा....
न कहा
न कहा उससे
सुनो!
ओ योगी!
तुम्हारी वादियाँ
मुझे भी बुलाती हैं
वो नीरवता
मुझे भी
लुभाती है.
जैसे
आये
वैसे
चले गए
मौन.
आह!
आना तो
न था
बस में,
पर,
क्या जाना?
क्या मौन जाना?
वो मौन
जो मुझे
सालता रहा
बस
मौन कर
गया मुझे
अब पगली
मौन है.

मौन!!
मौन ही
तकती है
राह...
गिरेंगे
पुष्प,
सूखे पात...
फिर धूल...
क्या जाने
लगे
जोगी को
थी भूल
और
भर जाये
राहों में
धूल...
यादों की धूल
जैसे
कोने में
पड़ी
तस्वीरों पर.

पर
जो
पोंछने पर
हो उठती हैं
स्वच्छ
वैसे
कोई
याद
चुपके से
राहों को
अश्रु से
भिगो देगी
और
चमक उठेंगे
पद-चिन्ह...
पद-चिन्ह तुम्हारे
ओ योगी
जो
नैनो को
मोती
और
होठों को
मुस्कान से
सजा देंगी.
चमक उठेंगे
नैन
लरज जायेंगे
ओंठ,
पर
फिर भी
मौन रहेगी
ये पगली .
ये पगली
मौन रहेगी.
हाँ योगी
न कहेगी
कुछ भी .
ये पगली मौन रहेगी!
4:19pm, 30/4/10

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