मन की वीणा सोई हुई है
कहीं दर्द ओढ़ याद खोई है
'प्रीति' दूर कोई गीत गुनगुना रही
सोई हुई हंसी दर्द को गले लगा रही
निर्मलता जो हिम सम थी हो चली
पिघल पिघल कर गंगा सी बह रही
आग लिए बहती थी हृदय में जो भरी
अश्रु वेग करुण भाव जीवित कर रही
मैं जीवित हूँ या जीवित सम हूँ
स्वयं की स्थिति पर अचंभित हूँ
क्या करुण करुणा के कारण हुए मेरे भाव हैं
असह्य पीर पुनः सह तितली पर फैला रही है
@Prritiy, 3.41pm, 14 sept, 2015
बढ़िया
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteआज बहुत लम्बे समय के बाद एक बार फिर से मन बनाया है ब्लॉग की इस दुनिया में वापसी का. आपका स्नेह मिलता रहा है. आगे भी मिलता रहेगा यही कामना है। आपकी बहुत सी रचनाएँ पढ़ना बाकी हैं। जल्द ही पढ़ने का प्रयास करूँगा.
ReplyDeleteबहुत आभार
अखिलेश 'कृष्णवंशी '
अति सुंदर, नाज़ुक ख्याल।
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