ब्लॉग में आपका स्वागत है

हृदय के उदगारों को शब्द रूप प्रदान करना शायद हृदय की ही आवश्यकता है.

आप मेरी शक्ति स्रोत, प्रेरणा हैं .... You are my strength, inspiration :)

Monday, October 11, 2010

कहीं पगली खो न जाए


क्या
“चंद्रिके”
अनंतकाल में
विलीन
हो गई
योगी …
कैसे जानू?
पढ़ती हूँ
तुम्हे
जो योगी
जान नहीं
पाती हूँ ...
कुछ पल तो
स्नेहवर्षा ने
भिगोया
फिर पड़ा क्यों ये
सूखा

कहा था
तुमने
है
रिश्ता ये
खेल नहीं
फिर
क्यों हुआ है
मेल नहीं
पल-पल जीती
पल-पल मरती
है ये पगली
यूँ
जीना-मरना
है खेल नहीं ....
चाहा योगी
सोचना
पर
ये सोच
तो
बह निकली
सरिता सम …
बह न जाओ
योगी
उस धारा में
यूँ
अंतः यात्रा में
इतनी दूर
कि
जब
आओ
फिर लौट
तो
ये आत्मा
तो मिले
पर
आत्म नहीं,
ये पगली
तो मिले
पर
पगलीपन नहीं,
ये देह
तो मिले
पर सदेह नहीं …
योगी
ऐसा
न हो कहीं

और
वैसा
भी न हो
कि
राह में
यूँ बढ़ चलो
कि
फिर
लौटने का मार्ग
ही
विस्मरण
हो जाए

चाह
जब
चेतना पर लौटे
तो
राह में
लौटने का मार्ग
बंद
हो चला हो
और
हम
बन जाएँ
दरिया के
दो किनारे
जो
चाह कर भी
मिल ना पायें …
“चंद्रिके”
जलछाया बन जाए
पगली खो जाए
लहरों में ….
2:57p.m., 16/5/10

No comments:

Post a Comment

Thanks for giving your valuable time and constructive comments. I will be happy if you disclose who you are, Anonymous doesn't hold water.

आपने अपना बहुमूल्य समय दिया एवं रचनात्मक टिप्पणी दी, इसके लिए हृदय से आभार.