आया
पगली को
संदेसा
"मिलने आएगा कभी
योगी आपसे"
मन मयूर झूम उठा
पगली का
ओह
क्या करूँ,
कैसे करूँ
राहों में
नेह पुष्प
सजाऊँ
या
यादों की लौ
प्रज्ज्वलित करूँ
करूँ कैसा
श्रृंगार
उलझाये
वस्त्र-विचार
अब
ये कैसा
पागलपन
छाया
मुस्काए ओंठ
नैनो से बही
स्नेह रसधारा
फिर पढ़ा
वो मधुर
संदेसा
"मिलने आएगा
कभी..."
कभी?
ओह!
न जाने कब....
पड़े गर्म तवे
में
छींटे ज्यों
उड़ गई
ख़ुशी ,
जब ,
आए
अनेकों
सवाल...
कहा तो
योगी ने
आयेंगे
पर
पर कौन?
वो जो
थे मेरे
मेरा स्नेह
स्वीकारते,
मुझको भी
थे यादों में
रखते,
वो
थी मैं
जिनकी
"चंद्रिके"
या....
ओह योगी!
क्या हो
गए
बदल,
क्या
बना गए हो
मुझे अजनबी....
कैसे सजाऊँ
पूजा की थाल
बन
"चंद्रिके"
या
बन
दूजी कोई पगली,
कुछ भी तो
न कहा,
बरसेगी
चांदनी
मेरे अंगना
या
झुलस जाउंगी
उस
शीतलता से....
और,
श्रृंगार करे
"चंद्रिके"
या
इक "जोगन”....
लाऊँ
मुस्कान
या
स्निग्ध शांति...
कैसे करे
स्वागत
ये पगली
अब
किससे
पूछे?
कैसे
जाने!
कैसे स्वागत करे
ये पगली
1pm, 5/5/10
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आपने अपना बहुमूल्य समय दिया एवं रचनात्मक टिप्पणी दी, इसके लिए हृदय से आभार.