मन की वीणा सोई हुई है
कहीं दर्द ओढ़ याद खोई है
'प्रीति' दूर कोई गीत गुनगुना रही
सोई हुई हंसी दर्द को गले लगा रही
निर्मलता जो हिम सम थी हो चली
पिघल पिघल कर गंगा सी बह रही
आग लिए बहती थी हृदय में जो भरी
अश्रु वेग करुण भाव जीवित कर रही
मैं जीवित हूँ या जीवित सम हूँ
स्वयं की स्थिति पर अचंभित हूँ
क्या करुण करुणा के कारण हुए मेरे भाव हैं
असह्य पीर पुनः सह तितली पर फैला रही है
@Prritiy, 3.41pm, 14 sept, 2015